
भारतीय संस्कृति में सिन्दूर विवाहित महिलाओं का प्रतीक माना जाता है, यह आमतौर पर पति के जीवित रहने और विवाह के बंधन में होने का संकेत देता है, यदि कोई महिला परंपरागत रुप से तलाक ले लेती है, तो उसे सिन्दूर के साथ अन्य सुहाग चिन्ह नहीं पहनने की सलाह दी जाती है।
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सिंदूर का धार्मिक महत्व
हिंदू धर्म में सिंदूर का विशेष महत्व है, विवाह के समय जब वर कन्या की मांग में सिंदूर भरता है, तब से यह महिला की वैवाहिक स्थिति का प्रतीक माना जाता है, धार्मिक ग्रंथों और परंपराओं के अनुसार, सिंदूर देवी पार्वती की पूजा से जुड़ा हुआ है और यह सुहागन स्त्रियों के लिए शुभ माना गया है, माना जाता है कि सिंदूर लगाने से पति की उम्र लंबी होती है और दांपत्य जीवन सुखमय रहता है।
तलाक के बाद सिंदूर लगाने पर धार्मिक दृष्टिकोण
धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो तलाक के बाद जब महिला का वैवाहिक संबंध समाप्त हो चुका होता है, तो उसे सिंदूर लगाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, सिंदूर का संबंध केवल विवाह के बंधन से जुड़ा होता है, न कि किसी सामाजिक पहचान से, इस दृष्टिकोण से, तलाकशुदा महिला द्वारा सिंदूर लगाना धार्मिक रूप से उचित नहीं माना जाता।
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क्या कहता है भारतीय कानून?
भारतीय संविधान और कानून की दृष्टि से किसी महिला को सिंदूर लगाने या न लगाने का निर्णय उसका व्यक्तिगत अधिकार है, भारत का कानून धर्मनिरपेक्ष है और किसी व्यक्ति पर धार्मिक प्रतीकों के पालन को बाध्य नहीं करता, तलाक के बाद महिला कानूनी रूप से स्वतंत्र होती है और वह चाहे तो सिंदूर लगा सकती है या नहीं, यह उसकी व्यक्तिगत पसंद पर निर्भर करता है, संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” उसे यह छूट देता है।
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समाज की सोच और बदलता नजरिया
भारतीय समाज में तलाकशुदा महिलाओं को लेकर अभी भी कई रूढ़िवादी विचार हैं। खासकर छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में तलाक को एक कलंक की तरह देखा जाता है, वहीं शहरी क्षेत्रों में इस सोच में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है, कई महिलाएं तलाक के बाद भी अपनी पहचान, पसंद और स्वाभिमान को बरकरार रखते हुए सिंदूर लगाती हैं, कुछ महिलाएं यह मानती हैं कि सिंदूर केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि उनकी पहचान का हिस्सा है।