
जौनसार-बावर और रवांई घाटी की सदियों पुरानी परंपरा ‘बूढ़ी दीवाली’ को सरकारी मान्यता दिलाने की मांग अब ज़ोर पकड़ रही है। इस प्रमुख त्योहार के दिन सार्वजनिक अवकाश (Public Holiday) घोषित करने के लिए स्थानीय निवासियों ने प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर अपनी भावनाएं व्यक्त की हैं।
इस खास मौके पर नौकरी और काम के सिलसिले में बाहर गए लोग अपने-अपने घरों को लौटते हैं। इसीलिए लोगों ने जिलाधिकारी से गुज़ारिश की है कि इस महत्वपूर्ण त्योहार के दिन अवकाश घोषित किया जाए, ताकि सभी लोग इसमें शामिल हो सकें। ज्ञापन देने वालों में बाबू राम शर्मा, ग्यारू सिंह, बारू चौहान, मुकेश पंवार जैसे स्थानीय लोग शामिल थे।
इस साल कब मनाई जाएगी बूढ़ी दीवाली?
बूढ़ी दीवाली का पर्व, जिसे ‘इमलोई’ भी कहा जाता है, मुख्य दीवाली के ठीक एक महीने बाद अमावस्या को मनाया जाता है। स्थानीय कैलेंडर के अनुसार, बूढ़ी दीवाली पारंपरिक रूप से 30 नवंबर 2025 के आसपास मनाई जाएगी। इस दिन, जौनसार-बावर और रवांई घाटी के गाँव-गाँव में जश्न का माहौल रहता है।
क्यों तेज हुई सार्वजनिक अवकाश की मांग?
बूढ़ी दीवाली के दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की मांग तेज होने के पीछे मुख्य कारण इस पर्व का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व है:
- सबसे बड़ा त्योहार: जौनसार-बावर और रवांई घाटी के लोगों के लिए बूढ़ी दीवाली साल का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। यह उनकी सांस्कृतिक पहचान और गौरव का प्रतीक है।
- घर वापसी का पर्व: इस पर्व पर रोज़गार या शिक्षा के लिए शहरों में रहने वाले लोग अनिवार्य रूप से अपने पैतृक घरों को लौटते हैं। अवकाश न होने के कारण कई लोग इसमें शामिल नहीं हो पाते, जिससे परिवार और समुदाय का मिलन अधूरा रह जाता है।
- सदियों पुरानी परंपरा: यह त्योहार सदियों पुरानी लोक-परंपराओं को जीवंत रखता है। इस दिन सामूहिक नृत्य, लोकगीत, और पारंपरिक अनुष्ठान किए जाते हैं, जिन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाना ज़रूरी है।
हाल ही में, क्षेत्र के कई निवासियों ने अपनी मांग को लेकर जिलाधिकारी को एक ज्ञापन (Memorandum) सौंपा है, जिसमें बाबू राम शर्मा, ग्यारू सिंह, बारू चौहान और मुकेश पंवार जैसे स्थानीय नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम शामिल हैं।
क्या है बूढ़ी दीवाली का ऐतिहासिक महत्व?
कहा जाता है कि बूढ़ी दीवाली मनाने की परंपरा रामायण काल से जुड़ी हुई है। माना जाता है कि राम के अयोध्या लौटने की खबर पहाड़ों तक एक माह देर से पहुंची थी, इसलिए यहां के लोगों ने मुख्य दीवाली के एक महीने बाद यह उत्सव मनाया।
इस पर्व की सबसे बड़ी खासियत इसके पारंपरिक अनुष्ठान हैं:
- होलियात (मशालों की दौड़): इस रात ‘होलियात’ (मशालें) जलाने और उन्हें लेकर दौड़ने की प्रथा है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक मानी जाती है।
- पारंपरिक नृत्य: इस दौरान सामूहिक ‘तांदी’ और ‘हारुल’ लोकनृत्य किए जाते हैं, जिसमें सभी ग्रामीण उत्साह से भाग लेते हैं।
- पारंपरिक पकवान: इस दिन अखरोट, घी, और पारंपरिक अनाजों से बने विशेष पकवान तैयार किए जाते हैं।









