
भारत में लगभग हर घर में एक दवाई का डिब्बा ज़रूर होता है, जिसमें बीपी (BP), शुगर (Sugar), या विटामिन्स जैसी कई दवाइयाँ रखी होती हैं। हम अक्सर सर्दी-जुकाम में भी तुरंत गोली ले लेते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि जब दवाएँ एक ही पदार्थ की हो सकती हैं, तो वे सारी सफ़ेद क्यों नहीं होतीं, बल्कि रंग-बिरंगी क्यों होती हैं? दरअसल, दवाइयों का रंगीन होना ज़रूरी होता है, ताकि उनकी आसानी से पहचान की जा सके और भूल से गलत दवाई खाने से बचा जा सके।
दवाइयों के अलग-अलग रंगों का कारण
दवाइयों के अलग-अलग रंग जैसे – जैसे लाल, हरा, नीला, पीला केवल उन्हें आकर्षक बनाने के लिए नहीं होते, बल्कि उनका एक वैज्ञानिक महत्व होता है। ये रंग उन लोगों के लिए बेहद फ़ायदेमंद होते हैं जिन्हें एक साथ कई दवाइयाँ लेनी होती हैं, ख़ासकर बुजुर्गों के लिए, जो नाम नहीं पढ़ पाते। रंगों की मदद से वे आसानी से पहचान सकते हैं कि उन्हें दिन में कौनसी और रात में कौनसी दवा लेनी है। इसके अलावा डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ भी रंगों से दवाओं की पहचान तेजी से करते हैं, जिससे मरीज को गलत दवा मिलने का खतरा कम हो जाता है।
अलग -अलग रंगों के पीछे उसका मनोविज्ञान
दवाइयों का रंग सिर्फ सजावट के लिए नहीं होता, बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं। दवा कंपनियाँ रंग का चुनाव बहुत सोच-समझकर करती हैं, क्योंकि इनका असर हमारे मन पर भी पड़ता है। जैसे- नीला रंग शांति और सुकून का प्रतीक है, इसलिए नींद या एंग्जायटी की दवाएँ अक्सर नीली होती हैं; वहीं लाल रंग जोश और ऊर्जा दिखाता है, जिसका इस्तेमाल एनर्जी बूस्टर दवाओं में होता है, और हरा रंग प्राकृतिक होने के कारण हर्बल दवाओं में उपयोग होता है।
इसके अलावा दवाओं के गहरे रंग (जैसे भूरा/काला) अक्सर आयरन या विटामिन जैसे पोषक तत्वों को दर्शाते हैं, साथ ही यह रंग उनकी कड़वाहट छिपाने और मरीजों को आसानी से खाने में मदद करने का काम भी करते हैं।
 
					







