
दिल्ली हाई कोर्ट की डिवीज़न बेंच ने एक विभाजन सूट (Partition Suit) को शुरुआत में ही रद्द करने की अपील खारिज कर दी है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर पिता ने पहले कोई समझौता डिक्री की थी, तो वह हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत बेटी के पैतृक संपत्ति में सहदायिक अधिकार (Coparcenary Rights) के स्वतंत्र दावे को अपने आप रोक नहीं सकती। जस्टिस अनिल क्षत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की बेंच ने कहा कि अपीलकर्ता द्वारा उठाए गए विवाद तथ्यों से जुड़े हैं और उनका फैसला केवल ट्रायल के बाद ही किया जा सकता है।
L.R. गुप्ता HUF संपत्ति विवाद
यह मामला सिविल सूट (CS(OS) 1965/2012) से जुड़ा है, जो श्रीमती सोनाक्षी गुप्ता (वादी) ने L.R. गुप्ता HUF की संपत्ति के बँटवारे, हिसाब-किताब और रोक लगाने के लिए दायर किया था। वादी ने दावा किया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में 2005 में हुए संशोधन के कारण वह संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में सहदायिक (Coparcener) बन गई हैं।
उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी सहमति के बिना संपत्ति बेची जा रही थी, और जब उन्होंने बँटवारे की माँग की (2011 और 2012 में), तो मना कर दिया गया। इसके जवाब में, श्री संजय गुप्ता (प्रतिवादी) और अन्य प्रतिवादियों ने सिविल प्रोसीजर कोड (CPC) के तहत याचिका दायर करके कहा कि यह मुकदमा कानूनन सही नहीं है और इसे खारिज कर देना चाहिए।
अपीलकर्ता का मुख्य तर्क
अपीलकर्ता (Appellant) की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता श्री मनीष वशिष्ठ ने कोर्ट में यह दलील दी कि परिवारों की अलग-अलग शाखाओं के बीच का यह झगड़ा पहले ही सुलझ चुका है। उन्होंने अपने तर्क के समर्थन में 9 जनवरी 2006 के एक समझौते वाले फैसले (compromise decree) का हवाला दिया, जो एक पुराने मुकदमे (CS 1968/2003) में पारित किया गया था। इस फैसले में दर्ज है कि परिवार की सभी शाखाएँ 1993 में ही अलग हो गई थीं।
वादी (Plaintiff) के मुख्य तर्क
- 1993 का विभाजन सिर्फ संपत्ति का: वादी ने तर्क दिया कि 1993 में हुआ विभाजन केवल चल और अचल संपत्तियों तक ही सीमित था, न कि हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) के सदस्यों के अधिकारों का।
- बेटियों का अधिकार: वादी एक बेटी है और उन्होंने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 2005 के तहत यह दावा किया कि वह अपने पिता के HUF में सहदायिक (Coparcener) हैं और उनका संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार है।
- 2006 के फैसले को चुनौती देने की ज़रूरत नहीं: वादी ने कहा कि 2006 का समझौता वाला फैसला (decree) केवल परिवार के पुरुष सदस्यों के बीच था। चूंकि वादी उस समय समझौते का हिस्सा नहीं थीं, इसलिए उन्हें उस फैसले को सीधे चुनौती देने की ज़रूरत नहीं है।
- संपत्ति में हिस्सेदारी: वादी ने जोर दिया कि वह बड़ी L.R. Gupta HUF की संपत्तियों में हिस्सेदारी पाने की हकदार हैं, क्योंकि HUF सही मायने में समाप्त नहीं हुआ था।
वादी (प्रतिवादी सं. 1) के मुख्य तर्क
- 2006 का समझौता बाध्यकारी नहीं: वादी के वकील ने तर्क दिया कि 2006 का समझौता वाला फैसला (compromise decree) केवल उनके पिता और अन्य प्रतिवादियों के बीच था। चूंकि वादी उस समय नाबालिग (minor) थीं और समझौते का हिस्सा नहीं थीं, इसलिए यह फैसला उन पर बाध्यकारी नहीं है।
- बेटियों का कानूनी अधिकार: उन्होंने दावा किया कि संशोधित हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत वादी को एक सहदायिक (coparcener) के रूप में स्वतंत्र कानूनी अधिकार (statutory right) प्राप्त है।
- जारी रहने वाला वाद कारण (Cause of Action): उनका तर्क था कि प्रतिवादियों द्वारा संपत्ति को लगातार बेचने (alienation) और निर्माण करने के कार्य जारी हैं, जिससे वादी के पास “लगातार और क्रमिक रूप से नया वाद कारण” उत्पन्न हो रहा है।
- अपीलकर्ता की आपत्तियाँ: अपीलकर्ता द्वारा उठाई गई आपत्तियाँ ऐसे जटिल मुद्दे (triable issues) हैं जिन पर कोर्ट में सुनवाई होनी ज़रूरी है। इन्हें Order VII Rule 11 के तहत संक्षेप में (summarily) खारिज नहीं किया जा सकता है।
कोर्ट का विश्लेषण और महत्वपूर्ण बाते
Order VII Rule 11 CPC का दायरा: डिवीजन बेंच ने इस नियम के तहत दी गई शक्ति की जाँच की। कोर्ट ने दोहराया कि किसी मुकदमे को शुरुआती दौर में ही खारिज करने की शक्ति सीमित है। यह निर्णय “पूरे दावे को ध्यान से और सार्थक रूप से पढ़ने” के आधार पर लिया जाना चाहिए, न कि केवल तकनीकी बारीकियों के आधार पर।
वाद कारण (Cause of Action) पर: कोर्ट ने पाया कि मुकदमे के पैराग्राफ 68 में वादी के दावे को जन्म देने वाली परिस्थितियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन परिस्थितियों में शामिल हैं:
- हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 का लागू होना (जिससे बेटियों को सहदायिक अधिकार मिला)।
- वादी का बालिग (majority) होना।
- प्रतिवादियों द्वारा संपत्ति के बंटवारे से साफ़ इनकार करना।









