
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर बेंच ने स्पष्ट किया है कि केवल आर्य समाज मंदिर द्वारा जारी किया गया विवाह प्रमाण पत्र किसी हिंदू विवाह को पक्का सबूत नहीं मानता। कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत विवाह तभी वैध माना जाएगा जब विवाह की ज़रूरी रस्में, खासकर ‘सप्तपदी’ (सात फेरे), पूरी तरह से स्थापित हों।
जस्टिस आनंद पाठक और जस्टिस हिरदेश की खंडपीठ ने यह फैसला सुनाते हुए फैमिली कोर्ट के उस आदेश को पलट दिया, जिसमें ज़रूरी रस्में साबित न होने पर भी विवाह को वैध मान लिया गया था।
शादी को चुनौती देने का मामला
यह अपील असली शिकायतकर्ता के कानूनी प्रतिनिधि (बेटे) द्वारा दायर की गई है। शिकायतकर्ता, जो कि 75 वर्षीय रिटायर्ड कंपनी कमांडर हैं, ने ग्वालियर की फैमिली कोर्ट में याचिका दायर की थी। उन्होंने कोर्ट से यह घोषित करने की माँग की थी कि प्रतिवादी (Respondent) उनकी कानूनी रूप से विवाहित पत्नी नहीं है और उस पर रोक लगाई जाए।
शिकायतकर्ता का आरोप है कि उन्होंने अपने बेटे के लिए दुल्हन खोजने हेतु विज्ञापन दिया था, जिसके बाद प्रतिवादी ने उनसे संपर्क किया। उन्होंने दावा किया कि प्रतिवादी ने उनके अकेलेपन का फायदा उठाकर उन्हें ब्लैकमेल किया और एक फर्जी शादी रचाई। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि प्रतिवादी ने आर्य समाज मंदिर, ग्वालियर से फर्जी विवाह प्रमाण पत्र प्राप्त किया है। उन्होंने यह भी कहा कि प्रतिवादी की शादी पहले से किसी और व्यक्ति से हुई थी और उसका एक पूर्व पति भी था।
ग्वालियर फैमिली कोर्ट में विवाह साबित
दूसरी ओर, प्रतिवादी (पत्नी) ने अदालत में तर्क दिया कि उनके पहले पति से तलाक 2008 में हो गया था। इसके बाद उन्होंने आर्य समाज के रीति-रिवाजों के अनुसार वादी (पति) से कानूनी रूप से विवाह किया। उन्होंने किसी और व्यक्ति से शादी होने की बात को पूरी तरह से खारिज कर दिया और अपने विवाह को साबित करने के लिए आर्य समाज मैरिज सर्टिफिकेट और नगरपालिका पंजीकरण (Municipal Registration) पर भरोसा किया।
ग्वालियर के प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट ने 2 सितंबर 2024 को पति का मुकदमा खारिज कर दिया। कोर्ट ने आर्य समाज प्रमाण पत्र, तस्वीरों और गवाहों की गवाही के आधार पर उनके विवाह को सही साबित माना। बाद में, पति के कानूनी उत्तराधिकारी ने इस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी।
विवाह की वैधता पर वकीलों की दलीलें
अपीलकर्ता (Appellant) की ओर से सीनियर वकील हरीश दीक्षित ने दलील दी कि कोर्ट यह तय करने में विफल रहा कि विवाह कानूनी रूप से हुआ था या नहीं। उन्होंने कहा कि वधू पक्ष के गवाहों ने ‘सप्तपदी’ (हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत ज़रूरी रस्म) के बारे में कुछ नहीं कहा। दीक्षित ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले Dolly Rani v. Manish Kumar Chanchal का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि केवल मैरिज सर्टिफिकेट ही विवाह को साबित नहीं करता, बल्कि रीति-रिवाजों को साबित करना ज़रूरी है।
इसके विपरीत, प्रतिवादी (Respondent) के वकील मदन मोहन श्रीवास्तव ने दावा किया कि विवाह 26 मार्च 2012 को वैदिक रीति-रिवाजों (सप्तपदी सहित) के साथ हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य समाज संस्था मान्य है और विवाह प्रमाण पत्र से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि विवाह वैध था।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के अनुसार
हाई कोर्ट ने इस बात पर मुख्य रूप से ध्यान दिया कि क्या यह शादी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के तहत कानूनी (Validly Solemnized) रूप से संपन्न हुई थी। कोर्ट ने डॉली रानी बनाम मनीष कुमार चंचल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि ‘शादी संपन्न होने’ का मतलब है, उसे सही रीति-रिवाजों के साथ पूरा करना।
कोर्ट ने टिप्पणी की कि जब तक शादी उचित रीति-रिवाजों, जैसे कि सप्तपदी (फेरे), के साथ नहीं की जाती, तब तक उसे हिंदू विवाह नहीं माना जा सकता। रिकॉर्ड में मौजूद सबूतों की जाँच करने पर, कोर्ट ने पाया कि गवाहों (पुजारी और आर्य समाज के प्रधान) ने कभी यह नहीं कहा कि शादी में ‘सप्तपदी’ की रस्म पूरी की गई थी।









