
सुप्रीम कोर्ट ने 70 साल से भी अधिक समय से चले आ रहे एक किरायेदारी विवाद को समाप्त कर दिया है। कोर्ट ने मकान मालकिन ज्योति शर्मा के पक्ष में फैसला सुनाते हुए किरायेदारों (विष्णु गोयल और अन्य) को किराये की जगह खाली करने का आदेश दिया है। 11 सितंबर 2025 को दिए गए इस फैसले में जस्टिस जेके माहेश्वरी और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच ने जनवरी 2000 से बकाया किराए की वसूली का भी निर्देश दिया है। हालांकि, किरायेदारों को मकान खाली करने के लिए छह महीने का समय दिया गया है।
दुकान खाली कराने को लेकर कानूनी विवाद
यह लंबे समय से चला आ रहा कानूनी झगड़ा एक दुकान के किरायेदारी से जुड़ा है, जो 1953 में शुरू हुई थी और जहाँ किराएदार का परिवार किराने का व्यवसाय चलाता था। मकान मालकिन, श्रीमती शर्मा, अपने ससुर रामजी दास द्वारा 1999 में बनाई गई वसीयत के आधार पर संपत्ति पर मालिकाना हक जता रही थीं। उन्होंने किराया न देने और अपनी पड़ोस की दुकान से मिठाई-नमकीन के व्यवसाय को बढ़ाने के लिए ईमानदारी से ज़रूरी होने का हवाला देते हुए किराएदारों को दुकान से बाहर निकालने की मांग की थी।
निचली अदालतों के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलटा
इस मामले में, पहले ट्रायल कोर्ट ने वसीयत को संदिग्ध मानते हुए मुक़दमे को खारिज़ कर दिया था। इसके बाद, अपीलीय कोर्ट ने भी अपील को अस्वीकार कर दिया, और हाई कोर्ट (HC) ने भी इसी फैसले को बरकरार रखा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट (SC) ने निचली अदालतों के इन फैसलों को खारिज कर दिया। SC ने कहा कि ये सभी फैसले अनुमान पर आधारित और विकृत थे, और इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने श्रीमती शर्मा के पक्ष में फैसला सुनाया।
किरायेदारी विवाद में अदालत का फैसला
जस्टिस विनोद चंद्रन ने अपने फैसले में यह पाया कि निचली अदालतों ने ज़रूरी सबूतों को नज़रअंदाज़ किया और मकान मालिक के स्वामित्व और वास्तविक ज़रुरत (bona fide need) के दावे को ग़लत तरीके से ख़ारिज कर दिया था। कोर्ट ने बताया कि मूल मकान मालिक, श्री दास, ने यह दुकान 1953 में किरायेदार के पिता, किशन लाल को किराए पर दी थी।
श्री लाल की मृत्यु के बाद, उनके बेटों (वर्तमान प्रतिवादियों) ने किरायेदारी और व्यापार जारी रखा। कोर्ट ने रामजी दास द्वारा 12 मई 1999 को निष्पादित वसीयत का भी उल्लेख किया, जिसके तहत उन्होंने विवादित दुकान अपनी बहू, ज्योति शर्मा को दी थी, जबकि उससे सटे हिस्से को उनके बच्चों के नाम कर दिया था।
किरायेदार और मकान मालकिन के बीच विवाद
श्रीमती शर्मा, जो उसी इमारत के पहले फ्लोर पर रहती हैं, चाहती थीं कि किरायेदार दुकान खाली कर दें ताकि वह अपने परिवार के मिठाई और नमकीन के कारोबार को उस दुकान में बढ़ा सकें। हालांकि, किरायेदार गोयल परिवार ने शर्मा के स्वामित्व पर सवाल उठाया। उनका आरोप था कि मूल रूप से संपत्ति शर्मा के दादा के चाचा, सुआ लाल की थी, जिनकी 1984 में मृत्यु हो गई थी, और इसलिए शर्मा के पति के पास भी कोई अधिकार नहीं था। गोयल परिवार ने यह भी आरोप लगाया कि विल (Will) नकली था और शर्मा के पति की मृत्यु के बाद उन्होंने शर्मा को कभी भी नया किरायेदार नहीं माना।
SC का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने किरायेदारों की आपत्तियों को यह कहते हुए खारिज (reject) कर दिया कि वे मिस्टर दास को उनके जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे को किराया देते रहे थे। कोर्ट ने स्पष्ट किया, “किरायेदार, जिसने पिछले मालिक के साथ रेंट डीड (rent deed) के ज़रिए कब्जा लिया है, वह बाद में मुड़कर मालिक के स्वामित्व (ownership) को चुनौती नहीं दे सकता।” कोर्ट ने 1953 के एक त्यागपत्र (relinquishment deed) का भी हवाला दिया, जिसने यह पुष्टि की कि मिस्टर दास के पास संपत्ति का स्पष्ट मालिकाना हक़ था।
वसीयत की प्रामाणिकता
वसीयत की प्रामाणिकता (authenticity) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट (SC) ने पाया कि ट्रायल कोर्ट का संदेह निराधार था। SC ने इस बात पर ज़ोर दिया कि हाई कोर्ट (HC) में मामला लंबित होने के बावजूद, अतिरिक्त जिला न्यायाधीश द्वारा 2018 में वसीयत का प्रोबेट (Probate) पहले ही दिया जा चुका था। SC ने कहा कि हाई कोर्ट ने इस प्रमाण को स्वीकार करने से मना करके गलती की। कोर्ट के अनुसार, “जब प्रोबेट का आदेश पेश किया गया, तो वसीयत के माध्यम से वादी के दावे को कानूनी मान्यता प्राप्त हुई, जिसे हाई कोर्ट द्वारा नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था।”








