
कर्नाटक हाईकोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार कानून में मौजूद कुछ कमियों को लेकर केंद्र सरकार को एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया है। एक मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने पाया कि मां और विधवा के पैतृक संपत्ति अधिकारों से जुड़े प्रावधानों में कुछ स्पष्टता की कमी है, जिसे दूर करना जरूरी है। इस संबंध में कोर्ट ने केंद्रीय कानून मंत्रालय को पत्र लिखकर कानून की खामियों को सुधारने को कहा है।
आपको बता दें कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 एक ऐतिहासिक कानून है जिसने महिलाओं को संपत्ति में बराबरी का हक दिलाने की नींव रखी थी, लेकिन अब कोर्ट ने इसे आधुनिक जरूरतों के हिसाब से और अधिक मजबूत बनाने पर जोर दिया है।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम: क्यों पड़ी इस कानून की जरूरत?
साल 1956 से पहले हिंदू समाज में संपत्ति के बंटवारे को लेकर कोई एक नियम नहीं था, बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों में मिताक्षरा और दायभाग जैसी पुरानी परंपराएं चलती थीं। इन पुराने रीति-रिवाजों में महिलाओं को संपत्ति के अधिकार न के बराबर मिलते थे। आजादी के बाद समाज में बराबरी और न्याय लाने के लिए सरकार ने इन सभी पुरानी प्रथाओं को खत्म कर एक समान और आधुनिक कानून बनाने का फैसला किया। इसी सोच के साथ ‘हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम’ लागू किया गया, ताकि महिलाओं को भी संपत्ति में उनका वाजिब हक मिल सके।
जानें किन पर लागू होता है यह कानून और क्या हैं प्रावधान
हिंदू उत्तराधिकार कानून मुख्य रूप से हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन समुदायों के लिए बनाया गया है। यह कानून पैतृक संपत्ति (जो पूर्वजों से मिली हो) और स्वयं अर्जित संपत्ति (जो खुद की कमाई से खरीदी हो) दोनों पर लागू होता है। यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु बिना कोई वसीयत (Will) बनाए हो जाती है, तो उसकी संपत्ति का बंटवारा इसी कानून के आधार पर किया जाता है। खास बात यह है कि इस कानून में पुरुषों और महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार और उत्तराधिकार के नियम अलग-अलग तय किए गए हैं, ताकि परिवार के सदस्यों के बीच निष्पक्ष बंटवारा सुनिश्चित हो सके।
पुरुष की संपत्ति पर किसका होता है पहला हक?
हिंदू कानून के अनुसार, यदि किसी पुरुष की मृत्यु बिना वसीयत बनाए हो जाती है, तो उसकी संपत्ति का बंटवारा तय नियमों के आधार पर होता है। सबसे पहले संपत्ति पर ‘क्लास-I’ के उत्तराधिकारियों का अधिकार होता है, जिसमें मृतक की पत्नी, बेटे, बेटियाँ और माँ शामिल होते हैं; इन सभी के बीच संपत्ति बराबर-बराबर बांटी जाती है। यदि इनमें से कोई भी जीवित न हो, तब संपत्ति ‘क्लास-II’ के वारिसों जैसे पिता और भाई-बहनों को दी जाती है। यह कानूनी व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि परिवार के नजदीकी सदस्यों को उनका उचित हक मिल सके।
अब बेटियों को मिलेगा बेटों के बराबर हिस्सा
भारत में महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को लेकर कानून अब काफी मजबूत हो गया है। 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने पहली बार महिलाओं को संपत्ति में कानूनी हक दिया था, लेकिन साल 2005 में हुए एक बड़े बदलाव ने बेटियों को बेटों के बिल्कुल बराबर खड़ा कर दिया। अब कानून के अनुसार, पैतृक संपत्ति (पुरखों की संपत्ति) पर जितना अधिकार बेटे का है, उतना ही अधिकार बेटी का भी है। बेटियां न केवल संपत्ति में बराबर हिस्सा ले सकती हैं, बल्कि वे परिवार की ‘कर्ता’ (मुखिया) बनने का भी पूरा हक रखती हैं।
हिंदू महिला की मृत्यु के बाद किसे मिलती है उसकी संपत्ति?
हिंदू उत्तराधिकार कानून के अनुसार, यदि किसी महिला की मृत्यु बिना वसीयत किए हो जाती है, तो उसकी संपत्ति पर सबसे पहला हक उसके पति और बच्चों का होता है। कानून के मुताबिक, यदि महिला का पति या बच्चे जीवित नहीं हैं, तो संपत्ति पति के कानूनी वारिसों को दी जाती है। कुछ विशेष स्थितियों में यह संपत्ति महिला के माता-पिता के परिवार को भी मिल सकती है। इन नियमों का मुख्य उद्देश्य महिला की संपत्ति को सुरक्षित रखना और उसे सही उत्तराधिकारियों तक पहुँचाना है।
क्या है हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005?
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 देश के कानून में एक ऐतिहासिक बदलाव है, जिसने बेटियों को पैतृक संपत्ति में बेटों के बराबर हक दिया है। इस कानून के तहत बेटी चाहे शादीशुदा हो या अविवाहित, उसे अपने पिता की संपत्ति में जन्म से ही समान अधिकार प्राप्त है और वह परिवार की ‘कर्ता’ भी बन सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि बेटी का यह हक स्थायी है, भले ही पिता की मृत्यु कानून लागू होने वाले साल यानी 2005 से पहले ही क्यों न हो गई हो।
महिलाओं के सम्मान और आत्मनिर्भरता में बड़ी जीत
बेटियों को संपत्ति में बराबरी का हक देने वाले कानून ने समाज की सोच और महिलाओं के जीवन को गहराई से बदला है। इस अधिकार से न केवल महिलाओं की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है, बल्कि परिवार के महत्वपूर्ण फैसलों में भी उनका सम्मान और भागीदारी बढ़ी है। आज गाँवों में भी लोग बेटियों के इस हक के प्रति जागरूक हो रहे हैं। हालांकि, सामाजिक पुरानी परंपराओं के कारण जमीनी स्तर पर चुनौतियां अब भी मौजूद हैं, लेकिन यह कानून महिलाओं को एक स्वतंत्र और सशक्त पहचान दिलाने की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हुआ है।
महिला अधिकार और कानून
देश में कड़े कानून होने के बावजूद महिलाओं को आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। अक्सर सामाजिक दबाव, कानूनी जानकारी का अभाव और अदालती कार्यवाही में लगने वाला लंबा समय महिलाओं की राह में बड़ी बाधा बन जाता है। जानकारों का कहना है कि जब तक समाज में जागरूकता नहीं फैलेगी और कानूनी प्रक्रिया को सरल नहीं बनाया जाएगा, तब तक महिलाएं इन कानूनों का पूरी तरह से लाभ नहीं उठा पाएंगी।









