देश में आरक्षण की पूरी तस्वीर बदलने की क्षमता रखने वाला एक बड़ा मामला सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर है। मध्य प्रदेश सरकार ने एक ऐसा कदम उठाया है, जो अगर सफल हो गया तो आरक्षण पर बनी 50% की सीमा हमेशा के लिए टूट सकती है। सरकार राज्य में कुल आरक्षण को 50% से बढ़ाकर 73% तक ले जाना चाहती है और इसके लिए उसने सुप्रीम कोर्ट से इस 50% की “लक्ष्मण रेखा” को लचीला बनाने की मांग की है।

क्या है आरक्षण पर 50% की दीवार?
इस पूरे मामले को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे, 1990 के दशक में जाना होगा।
- मंडल कमीशन और 27% OBC आरक्षण: 1979 में बने मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में OBC यानी अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% आरक्षण देने की सिफारिश की। 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने इसे लागू करने की कोशिश की, तो देश भर में बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू हो गए।
- इंदिरा साहनी केस: यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जिसे इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस के नाम से जाना जाता है। 1992 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
- 50% की सीमा: कोर्ट ने 6-3 के बहुमत से यह तय कर दिया कि किसी भी हालत में कुल आरक्षण (SC, ST, OBC मिलाकर) 50% से ज्यादा नहीं हो सकता।
- एक “लेकिन” भी जोड़ा गया: हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर कोई “असाधारण परिस्थिति” (Extraordinary Circumstance) हो, जहां 50% की सीमा के कारण न्याय करना असंभव हो जाए, तो इस नियम से हटा भी जा सकता है।
मध्य प्रदेश ने कैसे तोड़ी यह दीवार?
2019 में तत्कालीन कमलनाथ सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया। उसने राज्य में OBC के लिए आरक्षण 14% से बढ़ाकर 27% कर दिया। अब मध्य प्रदेश का आरक्षण गणित कुछ ऐसा हो गया:
- अनुसूचित जाति (SC): 16%
- अनुसूचित जनजाति (ST): 20%
- अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC): 27%
- आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS): 10%
इन सबको मिलाकर कुल आरक्षण 73% पर पहुंच गया, जो 50% की सीमा का सीधा-सीधा उल्लंघन था।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में क्या दलील दी?
मामला हाईकोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। मध्य प्रदेश सरकार ने अपने फैसले को सही ठहराने के लिए डेटा और तर्कों की झड़ी लगा दी है।
- आबादी का तर्क: सरकार का कहना है कि मध्य प्रदेश की 51% से ज्यादा आबादी OBC है (2011 की जनगणना के अनुसार), लेकिन उन्हें सिर्फ 14% आरक्षण मिल रहा था, जो कि अन्याय है।
- पिछड़ेपन का हवाला: सरकार ने आंकड़े पेश करते हुए कहा कि OBC समुदाय आज भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से बहुत पीछे है और उन्हें बराबरी पर लाने के लिए 27% आरक्षण देना संवैधानिक रूप से जरूरी है।
क्या दूसरे राज्यों में भी ऐसा हुआ है?
यह दिलचस्प है कि कुछ राज्यों ने 50% की सीमा को तोड़ा है, लेकिन हर किसी को सफलता नहीं मिली।
- तमिलनाडु (सफलता): यहां 69% आरक्षण लागू है। इसे “असाधारण परिस्थिति” मानकर संसद से मंजूरी दी गई और संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया गया ताकि इसे कोर्ट में चुनौती न दी जा सके।
- महाराष्ट्र (असफलता): मराठा आरक्षण को 68% तक ले जाने की कोशिश को 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया।
- बिहार (असफलता): 2023 में आरक्षण बढ़ाने के एक ऐसे ही प्रयास को पटना हाईकोर्ट ने डेटा की कमी का हवाला देते हुए रद्द कर दिया।
अब आगे क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर 8 अक्टूबर से रोजाना सुनवाई करने जा रहा है। संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा का मानना है कि इस मामले में कोई अंतिम फैसला इतनी जल्दी आने की उम्मीद कम है। उनके अनुसार, आरक्षण देने के लिए सिर्फ पिछड़ापन ही नहीं, बल्कि सरकारी नौकरियों में “अपर्याप्त प्रतिनिधित्व” (Inadequate Representation) और प्रशासन की कार्यक्षमता पर कोई बुरा असर न पड़ना भी जरूरी शर्तें हैं।
पूरे देश की नजरें अब सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं। अगर मध्य प्रदेश सरकार अपने तर्कों से कोर्ट को सहमत कर लेती है, तो यह फैसला न सिर्फ मध्य प्रदेश, बल्कि पूरे भारत में आरक्षण की राजनीति और सामाजिक समीकरणों को हमेशा के लिए बदल सकता है।