
उत्तर प्रदेश सरकार ने पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगमों के अधीन 42 जिलों में बिजली आपूर्ति को निजी हाथों में सौंपने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। यह बदलाव Public-Private Partnership (PPP) मॉडल के तहत किया जा रहा है, जहां Distribution का कार्य निजी कंपनियों को सौंपा जाएगा जबकि Infrastructure राज्य सरकार के अधीन ही रहेगा। यह फैसला राज्य के ऊर्जा क्षेत्र को अधिक दक्ष, पारदर्शी और टिकाऊ बनाने के लिए उठाया गया है।
PPP मॉडल के तहत निजीकरण की प्रक्रिया
प्रदेश सरकार द्वारा गठित Energy Task Force की मंजूरी मिलने के बाद यह योजना अब उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग (UPERC) के पास अंतिम स्वीकृति के लिए भेजी गई है। यह टास्क फोर्स ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े सभी महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों की निगरानी करती है और सुधारात्मक कदमों को वैज्ञानिक और पारदर्शी तरीके से लागू करने का कार्य करती है। इस निजीकरण प्रक्रिया का उद्देश्य Distribution प्रणाली में Efficiency, Revenue Collection और Power Supply Quality को बेहतर बनाना है।
प्रमुख जिले जहां निजीकरण लागू किया जा रहा है
इस योजना से वाराणसी, प्रयागराज, गोरखपुर, कानपुर, झांसी, आगरा और इटावा जैसे प्रमुख जिले प्रभावित होंगे। इन जिलों में निजी कंपनियां बिजली वितरण की जिम्मेदारी लेंगी। इससे पहले भी राज्य सरकार ने 2010 में आगरा में फ्रेंचाइज़ी मॉडल के तहत निजीकरण का प्रयोग किया था, जिसमें Torrent Power Ltd. को बिजली वितरण का कार्य सौंपा गया था। आगरा में इस मॉडल को अपनाने के बाद बिजली चोरी में उल्लेखनीय कमी आई है और बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता में सुधार देखा गया है।
बिजली कर्मचारी संगठनों का विरोध
हालांकि सरकार इस मॉडल को सफल मान रही है, लेकिन बिजली विभाग के कर्मचारी संगठनों में इस निर्णय को लेकर गहरी नाराजगी है। संघर्ष समिति ने 29 मई से अनिश्चितकालीन हड़ताल की चेतावनी दी थी, जिसे फिलहाल स्थगित किया गया है। कर्मचारियों का तर्क है कि यह निजीकरण उनकी नौकरी की सुरक्षा, सेवा शर्तों और भविष्य पर सीधा प्रहार है।
कर्मचारी संगठनों की मुख्य चिंताएं
कर्मचारी निजीकरण को लेकर कई गंभीर आशंकाएं जता रहे हैं। सबसे बड़ी चिंता नौकरी की स्थिरता को लेकर है। उन्हें डर है कि निजी कंपनियां उन्हें या तो कॉन्ट्रेक्ट पर रखेंगी या VRS (Voluntary Retirement Scheme) के ज़रिए बाहर का रास्ता दिखा देंगी।
दूसरी चिंता सेवा शर्तों में बदलाव को लेकर है – जैसे वेतन, भत्ते, प्रमोशन और पेंशन से जुड़े नियमों में निजी कंपनियां अपने हिसाब से फेरबदल कर सकती हैं। इससे कर्मचारियों के अधिकारों पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है।
कई कर्मचारियों को यह भी डर है कि VRS एक जबरन रिटायरमेंट के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा, खासकर उन लोगों के लिए जिनकी उम्र 50 से अधिक हो चुकी है। इससे उनका भविष्य और आर्थिक स्थिरता असुरक्षित हो जाएगी।
स्थानांतरण और उपभोक्ता सेवा की गुणवत्ता
निजीकरण के बाद कर्मचारियों को मनमर्जी से किसी भी जिले में ट्रांसफर किया जा सकता है, जिससे पारिवारिक और सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है। इसके अलावा, कर्मचारियों का मानना है कि निजी कंपनियां मुनाफा कमाने के उद्देश्य से काम करती हैं, न कि उपभोक्ताओं की सुविधाओं को ध्यान में रखकर। इससे बिजली दरों में बढ़ोतरी, लगातार कटौती और उपभोक्ता शिकायतों की अनदेखी जैसी समस्याएं बढ़ सकती हैं – जैसा आंशिक रूप से आगरा में देखा गया।
सरकार के विकल्प: कर्मचारियों के लिए तीन रास्ते
सरकार ने कर्मचारियों के समायोजन के लिए तीन विकल्प दिए हैं:
- निजी कंपनी में समायोजन (बिना सेवा शर्तों के बदलाव)
- किसी अन्य सरकारी विभाग में स्थानांतरण
- स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (VRS)
सरकार का दावा है कि इन विकल्पों के माध्यम से किसी भी कर्मचारी के हितों को नुकसान नहीं पहुंचेगा, लेकिन कर्मचारी संगठनों का विश्वास अभी भी डगमगाया हुआ है।