भारतीय समाज में संपत्ति के बंटवारे का मुद्दा हमेशा से संवेदनशील रहा है, खासकर जब बात बेटियों के अधिकारों की हो. दशकों तक, बेटियों को पिता की संपत्ति में बेटों के बराबर का हिस्सेदार नहीं माना जाता था. लेकिन 2005 में हुए एक ऐतिहासिक कानूनी बदलाव और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं ने इस स्थिति को पूरी तरह बदल दिया है. आज कानून स्पष्ट है कि बेटी, चाहे विवाहित हो या अविवाहित, पिता की संपत्ति में बेटे के बराबर की हकदार है.

हालांकि, इस कानून को लेकर आज भी कई सारे भरम हैं, इन्ही के बारे मे यहाँ समझेंगे
संपत्ति के मामले में 2005 का ऐतिहासिक संशोधन
भारतीय कानून में मील का पत्थर साबित हुआ हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, जो 9 सितंबर, 2005 से लागू हुआ. इस संशोधन ने मूल हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 में आमूलचूल बदलाव किया।
- संशोधन से पहले की स्थिति: 2005 से पहले, बेटियां केवल ‘हिंदू अविभाजित परिवार’ (HUF) की सदस्य होती थीं, ‘हमवारिस’ (Coparcener) नहीं। हमवारिस वे होते हैं जिनका पैतृक संपत्ति पर जन्म से अधिकार होता है। शादी के बाद बेटी का यह सदस्यता अधिकार भी समाप्त हो जाता था.
- संशोधन के बाद की स्थिति: 2005 के संशोधन ने बेटियों को जन्म से ही ‘हमवारिस’ का दर्जा दे दिया. इसका मतलब है कि पैतृक संपत्ति पर बेटी का उतना ही अधिकार है जितना बेटे का, और यह अधिकार उसके जन्म के साथ ही जुड़ जाता है, चाहे उसका विवाह हुआ हो या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट का landmark फैसला: ‘विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा’ (2020)
2005 के कानून के बाद एक बड़ा सवाल यह था कि क्या इस कानून का लाभ केवल उन बेटियों को मिलेगा जिनके पिता 9 सितंबर, 2005 को जीवित थे? इस भ्रम को सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त, 2020 को ‘विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा’ मामले में दिए अपने ऐतिहासिक फैसले से दूर कर दिया.
तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट किया: बेटी जन्म से ही हमवारिस होती है। इस अधिकार के लिए यह अप्रासंगिक है कि 2005 के संशोधन के समय उसके पिता जीवित थे या नहीं।
इस फैसले ने यह सुनिश्चित कर दिया कि बेटी का अधिकार जन्मसिद्ध है और इसे किसी शर्त से नहीं बांधा जा सकता।
पहले संपत्ति के प्रकार समझना ज़रूरी: स्व-अर्जित बनाम पैतृक
बेटियों के अधिकार को समझने के लिए संपत्ति के प्रकार को जानना महत्वपूर्ण है, क्योंकि दोनों पर अलग-अलग नियम लागू होते हैं:
1. स्व-अर्जित संपत्ति (Self-Acquired Property):
यह वह संपत्ति है जिसे पिता ने अपनी कमाई, संसाधनों या मेहनत से खुद बनाया या खरीदा है। इस संपत्ति पर पिता का पूरा-पूरा अधिकार होता है। वह वसीयत (Will) बनाकर इस संपत्ति को किसी को भी दे सकते हैं। यदि पिता वसीयत में बेटी को हिस्सा नहीं देते हैं, तो बेटी उसे कानूनी रूप से चुनौती नहीं दे सकती. और ना ही पिता की इस संपत्ति पर बेटी का हक़ होगा.
2. पैतृक संपत्ति (Ancestral Property):
यह वह संपत्ति है जो किसी पुरुष या महिला को अपने पिता, दादा या परदादा से विरासत में मिली है (चार पीढ़ियों तक)। इस संपत्ति पर बेटे और बेटी, दोनों का जन्म से समान अधिकार होता है। पिता इस संपत्ति का बंटवारा मनमाने ढंग से नहीं कर सकते और न ही वसीयत के जरिए किसी बेटी को उसके हिस्से से वंचित कर सकते हैं. यानि इस तरह की संपत्ति को सभी भाई-बहनों में बराबर बंता जाएगा.
इन स्थितियों में बेटी नहीं कर सकती संपत्ति पर दावा
कानूनी रूप से हक़ होने के बावजूद कुछ विशेष परिस्थितियां हैं जहां बेटी का दावा कमजोर पड़ सकता है या वह दावा नहीं कर सकती:
- जब पिता ने स्व-अर्जित संपत्ति की वसीयत कर दी हो: अगर पिता ने अपनी स्व-अर्जित संपत्ति की वसीयत बनाकर उसे किसी और के नाम कर दिया है, तो बेटी उस पर दावा नहीं कर सकती।
- जब बेटी ने स्वेच्छा से अपना अधिकार छोड़ दिया हो: अगर बेटी ने कानूनी रूप से एक ‘हक़-त्याग पत्र’ (Release Deed) पर हस्ताक्षर कर, किसी मुआवजे या बिना मुआवजे के, अपना हिस्सा छोड़ने का फैसला किया है, तो वह बाद में दावा नहीं कर सकती।
- अगर पिता ने अपने जीवनकाल में ही संपत्ति बेच दी हो: यदि पिता ने संपत्ति अपने जीवनकाल में ही बेच दी है, तो मृत्यु के बाद उस संपत्ति पर कोई दावा नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह संपत्ति अब परिवार की नहीं रही।
- संपत्ति का बंटवारा 2005 से पहले हो चुका हो: यदि पैतृक संपत्ति का कानूनी तौर पर बंटवारा 20 दिसंबर 2004 (जिस दिन संशोधन विधेयक संसद में पेश हुआ) से पहले ही हो चुका है, तो उस व्यवस्था को चुनौती नहीं दी जा सकती।
कानून ने बेटियों को संपत्ति में बराबरी का दर्जा देकर एक बड़े सामाजिक और आर्थिक बदलाव की नींव रखी है। समय समय पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने इस अधिकार को और मजबूत किया है। हालांकि, अपने अधिकारों की पूरी जानकारी रखना हर बेटी के लिए आवश्यक है ताकि उसे कानूनी रूप से जो मिला है, उससे कोई वंचित न कर सके।
