Nuclear Bomb Explosions: हवा में या ज़मीन पर, न्यूक्लियर बम फटने पर कहां होती है सबसे ज़्यादा तबाही?

भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया सैन्य टकराव में न्यूक्लियर हथियारों के संभावित इस्तेमाल को लेकर चिंता बढ़ी। भारत ने ऑपरेशन सिंदूर में किराना हिल्स को निशाना बनाने के आरोप को नकारा। भारत की No First Use Policy इसकी जिम्मेदार रणनीति को दर्शाती है, जबकि पाकिस्तान ने टैक्टिकल न्यूक्लियर हथियार विकसित किए हैं। न्यूक्लियर बम के हवा और जमीन पर फटने के प्रभाव अलग होते हैं, जो व्यापक तबाही ला सकते हैं।

By GyanOK

Nuclear Bomb Explosions: हवा में या ज़मीन पर, न्यूक्लियर बम फटने पर कहां होती है सबसे ज़्यादा तबाही?
Nuclear Bomb Explosions

भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में हुए सैन्य टकराव के दौरान न्यूक्लियर बम के खतरे की आशंका एक बार फिर गहराई से महसूस की गई। खास तौर पर पाकिस्तान की ओर से यह दावा किया गया कि भारतीय सेना के ऑपरेशन सिंदूर में उसके न्यूक्लियर स्टोरेज स्थल किराना हिल्स को निशाना बनाया गया। हालांकि भारत ने इस दावे को स्पष्ट रूप से खारिज करते हुए कहा कि इस ऑपरेशन का मकसद केवल आतंकी ठिकानों को खत्म करना था, न कि किसी न्यूक्लियर इंस्टॉलेशन को। भारत की No First Use Policy इस दिशा में भारत के रुख को साफ दिखाती है।

भारत की No First Use Policy और परमाणु हथियारों की रणनीति

भारत एक जिम्मेदार न्यूक्लियर पावर के रूप में No First Use Policy का पालन करता है। इसका मतलब यह है कि भारत तब तक किसी भी देश पर न्यूक्लियर अटैक नहीं करेगा, जब तक कि उसके खिलाफ पहले न्यूक्लियर हमला न किया जाए। लेकिन अगर भारत पर न्यूक्लियर हमला होता है, तो वह पूरी ताकत के साथ जवाबी कार्यवाही कर सकता है। यह नीति भारत की सुरक्षा रणनीति को संतुलित बनाती है और क्षेत्रीय स्थिरता को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है।

वहीं पाकिस्तान इस तरह की किसी नीति को नहीं मानता और उसका न्यूक्लियर डिफेंस स्ट्रैटेजी अधिक फ्लेक्सिबल और आक्रामक मानी जाती है। इसी नीति के तहत पाकिस्तान ने हाल के वर्षों में टैक्टिकल न्यूक्लियर वेपन यानी छोटे न्यूक्लियर हथियार तैयार किए हैं।

पाकिस्तान के टैक्टिकल न्यूक्लियर हथियार और उनके खतरे

पाकिस्तान ने पारंपरिक न्यूक्लियर बमों के अलावा छोटे-छोटे टैक्टिकल न्यूक्लियर वेपन्स तैयार किए हैं, जिन्हें सीमित इलाके में टारगेट करने के लिए डिजाइन किया गया है। ये हथियार बड़े पैमाने पर तबाही नहीं लाते, लेकिन जहां गिरते हैं, वहां के वातावरण और आबादी पर खतरनाक रेडिएशन का प्रभाव छोड़ते हैं। इनका उद्देश्य खासतौर पर सीमावर्ती इलाकों में भारतीय सैन्य ठिकानों को निशाना बनाना हो सकता है।

हवा में न्यूक्लियर बम के फटने का प्रभाव

अधिकांश न्यूक्लियर बम हवा में फटने के लिए डिजाइन किए जाते हैं, जिसे एयर बर्स्ट डेडोनेशन कहा जाता है। इसमें बम जमीन से कुछ मीटर ऊपर फटता है, जिससे रेडिएशन और विस्फोट की तरंगें बड़ी दूरी तक फैलती हैं। इस तरह के धमाके खासकर बड़े शहरों में की जाने वाली रणनीतिक बमबारी के लिए उपयुक्त माने जाते हैं। इसका असर हजारों लोगों की जान ले सकता है और लंबे समय तक पर्यावरणीय क्षति पहुंचा सकता है।

अगर न्यूक्लियर बम ज़मीन पर फटे तो क्या होगा?

जब कोई न्यूक्लियर बम सीधे धरती की सतह पर फटता है, तो उसका प्रभाव सीमित दायरे में होता है, लेकिन अत्यधिक विनाशकारी होता है। इसे ग्राउंड बर्स्ट कहा जाता है, जो दुश्मन के अंडरग्राउंड बंकर, कमांड सेंटर्स और विशेष सैन्य ठिकानों को नष्ट करने के लिए इस्तेमाल होता है। इस तरह के हमले में रेडिएशन का असर एक सीमित इलाके में बहुत तीव्रता से फैलता है, जो वहां की मानव और प्राकृतिक जीवन को गहरी क्षति पहुंचाता है।

विश्व के नौ देश और न्यूक्लियर हथियारों की होड़

वर्तमान में दुनिया के नौ देशों के पास न्यूक्लियर हथियार हैं, जिनमें भारत और पाकिस्तान शामिल हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर न्यूक्लियर बम गिराए थे। ये दोनों ही एयर बर्स्ट थे और लाखों लोगों की जान लेने के साथ-साथ दशकों तक चलने वाला रेडिएशन असर छोड़ गए। इन हमलों के बाद आज तक किसी युद्ध में न्यूक्लियर हथियार का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन उनकी मौजूदगी आज भी वैश्विक चिंता का विषय बनी हुई है।

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