
कोर्ट में झूठ बोलना भारतीय कानून के तहत एक गंभीर अपराध है। भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code – IPC) की विभिन्न धाराओं में इस अपराध के लिए सख्त सजा का प्रावधान है। न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता बनाए रखने के लिए सत्य बोलना अनिवार्य है, और झूठ बोलने पर व्यक्ति को जेल और जुर्माने का सामना करना पड़ सकता है।
यह भी देखें: स्प्लेंडर के सामने फेल हुई ये बाइक, अप्रैल में एक भी ग्राहक नहीं मिला, कंपनी ने उठाया बड़ा कदम
IPC की धारा 193: झूठी गवाही और सजा
IPC की धारा 193 के तहत, यदि कोई व्यक्ति न्यायिक कार्यवाही के दौरान जानबूझकर झूठी गवाही देता है या झूठे सबूत पेश करता है, तो उसे सात साल तक की सजा और जुर्माना हो सकता है। यह अपराध जमानती और गैर-संज्ञेय है, और इसकी सुनवाई प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा की जाती है ।
अन्य संबंधित धाराएं
- धारा 227: झूठी गवाही देने पर तीन साल तक की सजा और 5000 रुपये तक का जुर्माना हो सकता है ।
- धारा 228: झूठे दस्तावेज या सबूत पेश करने पर सजा का प्रावधान है।
- धारा 229: झूठी गवाही देने पर तीन साल तक की सजा और 5000 रुपये तक का जुर्माना हो सकता है ।
यह भी देखें: सुजुकी E-Access इलेक्ट्रिक स्कूटर जल्द आने वाला है मार्केट में, जानें लॉन्च डेट और फीचर्स
गंभीर मामलों में सख्त सजा
यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर झूठे सबूत देता है जिससे किसी निर्दोष व्यक्ति को फांसी या आजीवन कारावास की सजा हो जाती है, तो झूठे सबूत देने वाले को भी वही सजा दी जा सकती है। IPC की धारा 230 के तहत, ऐसे मामलों में दोषी को मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा हो सकती है ।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि केवल विरोधाभासी बयान या हलफनामे में विसंगतियां झूठी गवाही के अपराध के लिए पर्याप्त नहीं हैं। न्यायालय को यह संतुष्ट होना चाहिए कि व्यक्ति ने जानबूझकर महत्वपूर्ण तथ्य पर झूठ बोला है, तभी IPC की धारा 193 के तहत कार्यवाही शुरू की जा सकती है ।
यह भी देखें: 2 लाख घरों में पहुंची इस SUV ने बना दिया रिकॉर्ड, कीमत सिर्फ ₹6.14 लाख से शुरू
झूठी गवाही के सामाजिक प्रभाव
अदालत में झूठ बोलना न केवल कानूनी अपराध है, बल्कि यह न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता को भी प्रभावित करता है। झूठी गवाही के कारण निर्दोष व्यक्ति को सजा हो सकती है, जिससे समाज में न्याय के प्रति विश्वास कम होता है।