झेलम नदी पर अधूरी पड़ी तुलबुल परियोजना (Tulbul Project) को लेकर एक बार फिर भारत और पाकिस्तान के बीच तनातनी तेज हो गई है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जहां इसे फिर से शुरू करने की मांग की है, वहीं पाकिस्तान में इसे लेकर चिंता और विरोध दोनों चरम पर हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान—”खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते”—के बाद यह तय माना जा रहा है कि भारत अब जल कूटनीति के जरिए पाकिस्तान को जवाब देने की दिशा में गंभीर हो गया है।

क्या है तुलबुल परियोजना?
तुलबुल परियोजना, जिसे तुलबुल नेविगेशन बैराज के नाम से भी जाना जाता है, झेलम नदी पर स्थित एक नियंत्रित संरचना (lock-cum-control structure) है, जिसे वुलर झील के आउटलेट पर बनाया जाना था। इस परियोजना की शुरुआत 1984 में की गई थी और इसका उद्देश्य झेलम नदी के जल प्रवाह को नियंत्रित करते हुए सर्दियों में जल परिवहन, सिंचाई और बिजली उत्पादन को सुलभ बनाना था। इससे कश्मीर में एक 100 किलोमीटर लंबा वाटर कॉरिडोर विकसित किया जा सकता था, जो बारामूला से श्रीनगर होते हुए अनंतनाग तक जलमार्ग सुविधा उपलब्ध कराता।
लेकिन निर्माण कार्य शुरू होते ही पाकिस्तान ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई, जिसके कारण 1987 में यह परियोजना पूरी तरह ठप पड़ गई।
पाकिस्तान क्यों कर रहा है विरोध?
पाकिस्तान का विरोध सीधा सिंधु जल संधि से जुड़ा है। 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुई इस संधि के तहत छह प्रमुख नदियों का जल बंटवारा तय हुआ था। झेलम, चिनाब और सिंधु नदियों के जल पर पाकिस्तान को लगभग पूर्ण अधिकार दिया गया, जबकि भारत को केवल सीमित गैर-उपभोग उपयोग (जैसे सिंचाई, हाइड्रोपावर) की अनुमति मिली।
पाकिस्तान का तर्क है कि तुलबुल परियोजना झेलम नदी के प्राकृतिक प्रवाह को रोक सकती है, जिससे उसके सिंचाई और पीने के पानी की उपलब्धता पर प्रभाव पड़ेगा। उसका मानना है कि यह परियोजना सिंधु जल समझौते का उल्लंघन है।
क्या होगा असर अगर तुलबुल परियोजना फिर से शुरू हुई?
अगर भारत तुलबुल परियोजना को फिर से चालू करता है, तो इसका सीधा फायदा जम्मू-कश्मीर को होगा। कश्मीर के लोग झेलम नदी के जल का बेहतर उपयोग कर सकेंगे—सिंचाई, नेविगेशन और बिजली के माध्यम से। अभी तक झेलम का पानी बिना नियंत्रण के पाकिस्तान की ओर बह जाता है, जिससे भारत को उसका पूरा लाभ नहीं मिल पाता।
विशेषज्ञों की मानें तो यह परियोजना कश्मीर की आर्थिक स्थिति सुधारने, रोजगार सृजन और जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन में अहम भूमिका निभा सकती है। वहीं पाकिस्तान के लिए यह स्थिति रणनीतिक और जल सुरक्षा के दृष्टिकोण से चुनौतीपूर्ण हो सकती है।
क्या कहता है सिंधु जल समझौता?
सिंधु जल संधि, जो भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता से हुई थी, छह नदियों — सिंधु, झेलम, चिनाब, सतलुज, ब्यास और रावी — के जल के बंटवारे को लेकर बनी थी। इसके तहत:
- सतलुज, रावी और ब्यास पर भारत को पूर्ण अधिकार
- झेलम, चिनाब और सिंधु पर पाकिस्तान को अधिक अधिकार
- भारत को इन तीन नदियों पर सीमित उपयोग (जैसे बिजली उत्पादन, सिंचाई) की अनुमति
भारत ने इस समझौते का वर्षों तक पालन किया, लेकिन हालिया घटनाओं, विशेषकर पहलगाम हमले (22 अप्रैल 2025) के बाद, भारत सरकार ने संधि को स्थगित करने की घोषणा कर दी। इसके बाद से ही तुलबुल परियोजना के पुनरुद्धार की चर्चा तेज हो गई है।
राजनीति और विरोध के स्वर
जहां उमर अब्दुल्ला ने इसे कश्मीर के हित में उठाया कदम बताया है, वहीं पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने इसे “भावनाएं भड़काने वाला राजनीतिक स्टंट” करार दिया है। उन्होंने चेताया है कि जब भारत और पाकिस्तान युद्ध के कगार से लौटे हैं, ऐसे में इस परियोजना को दोबारा शुरू करने की बात शांति के प्रयासों को कमजोर कर सकती है।
भारत की जल कूटनीति की नई दिशा?
तुलबुल परियोजना अब सिर्फ एक बांध नहीं रही, बल्कि यह भारत की रणनीतिक जल कूटनीति का अहम हथियार बन चुकी है। मौजूदा भू-राजनीतिक हालात में भारत के लिए यह अवसर हो सकता है कि वह पाकिस्तान को जल संसाधनों के माध्यम से कूटनीतिक दबाव में लाए — बशर्ते अंतरराष्ट्रीय कानूनों और पर्यावरणीय संतुलन का पालन करते हुए।
इस परियोजना को फिर से शुरू करना न सिर्फ कश्मीर के लिए आर्थिक लाभकारी होगा, बल्कि भारत के लिए एक भविष्य-दर्शी जल नीति की दिशा में भी मजबूत कदम होगा।