प्रयागराज महाकुंभ के पावन अवसर पर जब श्री पंचायती निर्मल अखाड़े की शोभायात्रा निकली, तो पूरा मेला क्षेत्र गुरुबाणी की गूंज, शबद कीर्तन और संतों के जयघोष से भर उठा। रथ पर विराजमान गुरु नानक देव जी और गुरु ग्रंथ साहिब के समक्ष पुष्प वर्षा कर श्रद्धालुओं ने जिस श्रद्धा से स्वागत किया, वह दृश्य आज के धार्मिक भारत की गहराई और एकता का प्रतीक बन गया।

लेकिन यह आध्यात्मिक दृश्य एक ऐतिहासिक बहस को भी फिर से जीवित कर गया. क्या सिख धर्म को जानबूझकर सनातन से अलग किया गया था? क्या यह विभाजन स्वाभाविक था या एक ब्रिटिश नीति का हिस्सा?
जहां से अलगाव शुरू हुआ
19वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश अधिकारी मैक्स आर्थर मैकलीफ (Max Arthur Macauliffe) ने यह कहना शुरू किया कि “सिख, हिंदू नहीं हैं।” उनका दावा था कि हिंदू धर्म एक “अजगर” की तरह है, जो दूसरी धार्मिक धाराओं को लपेटकर निगल जाता है। इस विचारधारा के पीछे एक बड़ा औपनिवेशिक उद्देश्य था—हिंदू-सिख एकता को तोड़कर भारत की सांस्कृतिक रीढ़ को कमजोर करना।
मैकलीफ ने गुरु ग्रंथ साहिब का अंग्रेजी में अनुवाद किया और वर्ष 1909 में ‘The Sikh Religion: Its Gurus, Sacred Writings and Authors’ नामक पुस्तक में सिखों को हिंदू परंपरा से अलग करने की वैचारिक रूपरेखा रखी। उन्होंने “हम हिंदू नहीं” जैसी भावना को संगठित रूप देने के लिए सिख विद्वानों से ग्रंथ लिखवाए और प्रचारित किया कि सिखों का धर्म अलग है।
निर्मल अखाड़ा और सनातन परंपरा का रिश्ता
निर्मल अखाड़ा, जिसे स्वयं गुरु गोविंद सिंह जी ने स्थापित किया था, वेद, उपनिषद और दर्शन शास्त्रों के प्रचार-प्रसार के लिए जाना जाता है। इसके संत संस्कृत, योग, वेदांत और सनातन विचारों के ज्ञाता होते हैं। मगर यही अखाड़ा, जो सिख पंथ की गहराई को दर्शाता है, ब्रिटिश नीतियों के चलते इतिहास से धीरे-धीरे हटा दिया गया।
इतिहासकारों के अनुसार, स्वर्ण मंदिर सहित प्रमुख गुरुद्वारों से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हटाना, गुरुद्वारों को महंतों से छीनकर SGPC को सौंपना, रहत मर्यादा जैसे नियम बनाकर मूर्ति पूजा को प्रतिबंधित करना—ये सभी योजनाएं इसी दिशा में एक कदम थे।
जब सिख और हिंदू साथ लड़े थे
स्वतंत्रता संग्राम में बंदा बहादुर, वीर हकीकत राय, भाई मति दास, भाई सतिदास, और भाई दयाल जी जैसे शहीदों ने हिंदू-सिख एकता के प्रतीक रूप में बलिदान दिया। मगर इनकी शहादतों को धीरे-धीरे सिख पंथ की अलग पहचान का हिस्सा बना दिया गया, जबकि उनके वंशज आज भी हिंदू समाज का हिस्सा हैं।
बाबा श्रीचंद जी द्वारा स्थापित उदासीन अखाड़ा, आज भी पंचतत्वों की पूजा करता है और सनातन परंपराओं से जुड़ा है। यह दर्शाता है कि सिख परंपरा केवल एक “धार्मिक पहचान” नहीं, बल्कि सनातन धर्म की गहराई से उपजी एक आध्यात्मिक यात्रा है।
कन्वर्ज़न और खालिस्तान एजेंडा
आज जब भारत विकास और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ओर बढ़ रहा है, कुछ ताकतें भारत के सबसे जुझारू समुदाय, सिखों को एक बार फिर अलगाव की ओर धकेल रही हैं।
- पंजाब में मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव,
- 60,000 से अधिक कन्वर्टेड पादरी,
- गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान की घटनाएं,
- और खालिस्तान के नाम पर विदेशों में भारत विरोधी आंदोलन,
ये सभी उसी “मैकलीफ मॉडल” का विस्तार हैं, जिसे आज एक नया रंग और फंडिंग मिल गई है।
क्या हमें फिर से जोड़ने की ज़रूरत है?
प्रयागराज में निर्मल अखाड़े की पेशवाई ने यह सिद्ध कर दिया कि सिख-सनातन एकता केवल इतिहास नहीं, आज की भी ज़रूरत है। यह वह समय है जब हम अपने इतिहास की सच्चाई को पहचानें और यह समझें कि सिख पंथ भारत की सांस्कृतिक आत्मा का ही विस्तार है।
गुरुओं की वाणी, जिनमें राम, हरि, गोविंद, शिव जैसे शब्द हजारों बार आए हैं क्या उनका अर्थ बदल देने से परंपरा बदल जाएगी?
संदर्भ और स्रोत:
- Max Arthur Macauliffe – The Sikh Religion: Its Gurus, Sacred Writings and Authors (1909)
- Harjot Oberoi – The Construction of Religious Boundaries: Culture, Identity, and Diversity in the Sikh Tradition
- J.S. Grewal & Irfan Habib – Sikh History from Persian Sources
- Press Information Bureau, Government of India – महाकुंभ 2025 से जुड़ी जानकारियाँ
- Indian Express, महाकुंभ और सिख इतिहास पर विशेष रिपोर्ट
- CSDS-Lokniti Study (2022) – Religious change and missionary activities in Punjab