
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) दुनिया की अर्थव्यवस्था को ठीक रखने में मदद करता है। जब किसी देश की आर्थिक हालत खराब होती है और उसे पैसों की ज़रूरत होती है, तो IMF उसे लोन देता है। IMF के पास यह पैसा उसके सदस्य देशों से आता है। हर सदस्य देश IMF में कुछ पैसे जमा करता है, और इसी जमा किए हुए पैसे से IMF ज़रूरतमंद देशों को लोन देता है। लोन देते समय IMF कुछ शर्तें भी रखता है ताकि देश अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारे और लोन वापस कर सके।
सदस्य देशों के कोटा (Quotas)
IMF के वित्तीय संसाधनों का सबसे बड़ा और स्थायी स्रोत हैं उसके सदस्य देशों द्वारा जमा किए गए कोटा-Quota। हर सदस्य देश को उसकी आर्थिक ताकत, वैश्विक व्यापार में हिस्सेदारी और विदेशी मुद्रा भंडार के आधार पर एक निश्चित कोटा आवंटित किया जाता है। यह कोटा सदस्य देश IMF के पूंजी भंडार में योगदान करते हैं। उदाहरणस्वरूप, अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी जैसे देशों के पास बड़े कोटे हैं, जबकि छोटे और विकासशील देशों का कोटा अपेक्षाकृत कम होता है। यही कोटा IMF की ऋण देने की बुनियाद बनते हैं।
आपातकालीन फंडिंग की सुविधा
जब वैश्विक आर्थिक संकट आता है और कोटा संसाधन अपर्याप्त हो जाते हैं, तो IMF NAB-New Arrangements to Borrow के तहत अतिरिक्त संसाधन जुटाता है। यह एक विशेष व्यवस्था होती है जिसमें IMF और चुनिंदा सदस्य देश या केंद्रीय बैंक शामिल होते हैं। NAB का उद्देश्य IMF को संकट के समय अतिरिक्त पूंजी प्रदान करना है, ताकि वह अपने सदस्य देशों को समय पर और पर्याप्त सहायता दे सके। यह एक प्रकार का सुरक्षा कवच है, जो IMF की लचीलापन क्षमता को मजबूत बनाता है।
द्विपक्षीय उधारी समझौते (Bilateral Borrowing Agreements)
IMF अपनी संसाधन शक्ति को और अधिक मजबूत करने के लिए Bilateral Borrowing Agreements यानी द्विपक्षीय समझौतों का सहारा लेता है। ये समझौते IMF और अलग-अलग सदस्य देशों के बीच किए जाते हैं, जिनके तहत देश IMF को सीधी उधारी देते हैं। यह तंत्र लचीला होने के साथ-साथ त्वरित सहायता प्रदान करने में सहायक होता है। उदाहरणस्वरूप, यूरोपीय देश अक्सर IMF को द्विपक्षीय सहायता के रूप में संसाधन उपलब्ध कराते हैं जब किसी क्षेत्र विशेष में वित्तीय अस्थिरता पैदा होती है।
IMF से ऋण लेने की शर्तें
IMF सिर्फ सहायता प्रदान नहीं करता, वह यह भी सुनिश्चित करता है कि ऋण लेने वाला देश सही दिशा में आर्थिक सुधार करे। इसके लिए वह Conditionality यानी संवैधानिकता लागू करता है, जो कुछ सख्त लेकिन उद्देश्यपरक आर्थिक सुधारों का एक पैकेज होता है। इन शर्तों का उद्देश्य ऋण का प्रभावी उपयोग और समय पर चुकता सुनिश्चित करना होता है।
इन शर्तों में प्रमुख बिंदु होते हैं:
- राजकोषीय समायोजन – बजट घाटा कम करने के लिए सरकारी खर्च में कटौती और करों में वृद्धि करना।
- मुद्रा अवमूल्यन – स्थानीय मुद्रा का अवमूल्यन करके निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाना।
- विनियमन और सब्सिडी में कमी – सब्सिडी हटाकर बाज़ार को अधिक स्वतंत्र बनाना।
- निजीकरण – सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपना।
- व्यापार उदारीकरण – आयात-निर्यात बाधाओं को हटाकर वैश्विक व्यापार को बढ़ावा देना।
इन उपायों का लक्ष्य आर्थिक असंतुलन को सुधारना होता है, लेकिन आलोचक मानते हैं कि ये शर्तें सामाजिक कल्याण पर असर डालती हैं और कई बार गरीब वर्ग पर अतिरिक्त बोझ डालती हैं। खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी सेवाओं में कटौती से सामाजिक असमानता बढ़ सकती है।